मैथिली साहित्य मे उपन्यासक विकासकेँ निम्न कालावधिमे देखल जा सकैत अछि।
आरम्भिक काल (1917 ई॰ – 1921 ई॰)
एहि कालमे उपन्यासक उद्देश्य समाज सुधार आ वैवाहिक समस्याक धरि संकेन्द्रित रहल। मुदा चारित्रिक चित्रण, विषयवस्तु, उद्देश्य, समन्वयक दृष्टिकोणसँ अपरिपक्व रहल। उपन्यास एकटा पैद्य कथा सन प्रतित होेएत अछि। एहि कालक जनारधन झा जनसीदनक “निर्दयी सासु” आ “शशीकला”, बिहारी लालदासक “सुमती” उल्लेखनीय अछि।
निर्माण काल (1922 ई० – 1932 ई०)
चरित्रचित्रण, शब्दविन्यास, विषयवस्तु अादिक दृष्टिकोणसँ उपन्यासमे परिपक्वता आ प्रवाहमयता आबि गेल। एहिकालक जनारधन झा जनसीदनक “पुनःविवाह” आ अनुप मिश्रक “नारद विवाह” प्रमुख उपन्यास अछि।
विकास काल (1933 ई० – 1950 ई०)
एहिकालमे मैथिलीक उपन्यास हिन्दी आ बांगलाक स्वर्णकालसँ स्पष्ट रुपसँ प्रभावित रहल। मैथिली उपन्यास पूर्णतः परिपक्वता प्राप्त करि लेल। हरिमोहन झाक “कन्यादान” आ यात्रीक “पारो” स्पष्ट प्रमाण अछि।
विस्तार काल (1951 ई० – 1990 ई०)
मैथिली उपन्यास हिन्दी, बांगला आ अंग्रजी संग प्रगतीवाद, समाजवाद, माअोवाद सन विचारधारासँ प्रभावित रहल। गांधी, टेगोर, फ्रायड,मोपसा आदिक स्पष्ट छाप मैथिली उपन्यासमे देखल जाय सकैत अछि। पुरानसभ बंधंन केँ तोडैत नव अायाम केँ प्राप्त कयल। मनोविश्लेष्णवाद, व्यक्तिवाद एहि कालक प्रमुखता अछि। ललितक “पृथ्वीपुत्र”, मणिपद्मक “लोरिक विजय” एकर उदाहरण अछि।
संक्रमण काल (1991 ई० – आय धरि)
इलेक्र्टानिक मिडियाक प्रभाव, पत्र – पत्रिकाक अभाव, प्रकाशन आ पाठकक अभाव, मैथिलीक अपेक्षा अग्रजी आ हिन्दीक प्रति मैथिलसभक दुराग्रहक कारण मैथिली उपन्यास संघर्षशील अछि। लीलीरेक “उपसंघार” उषाकिरण खाँक “हसीना मंजरी” एहि कालक उपन्यासक विशेष उदाहरण अछि।